Wednesday 20 December 2017

नाम भजन ही सर्वोतम साधन


श्री चैतन्य वाणी का उपदेश: श्रीकृष्ण-नाम-संकीर्त्तन
[‘श्री चैतन्य वाणी’ के चौथे-वर्ष में प्रवेश पर श्रील गुरुदेव द्वारा वन्दना]


श्री चैतन्य वाणी का जिनके कर्ण-कुहरों में प्रवेश हुआ, उनका ही ह्रदय मार्जित हुआ है। श्रीचैतन्य वाणी ने केवल मात्र उनके हृदयों का मार्जन कर पुनः-पुनः जन्म-मृत्यु के हाथों से उनका उद्धार ही नहीं किया बल्कि उन्हें वास्तव मंगल-स्वरुप, श्रीगौर-कृष्ण के सुस्निग्ध कृपा लोक में प्रकाशित कराते हुए, उनके पास स्व-स्वरुप (जीव स्वरुप), माया का स्वरूप तथा श्रीभगवान् का स्वरूप प्रकशित कर, उनके ह्रदय में आनन्द समुद्र-वर्धन व कदम-कदम पर पूर्णामृत का आस्वादन कराते हुए उन्हें उन्नतम, सुनिर्मल आनन्द सागर में निमज्जन का सौभाग्य प्रदान किया है।
इस प्रकार महिमायुक्त भगवद्-वाणी की वन्दना करते हुए, हम आज नववर्ष में आत्म-पवित्रता के लिए प्रयत्नशील होंगे। श्री चैतन्य वाणीकी जय हो। इसके श्रद्धालु, श्रवण व कीर्तन करने वाले सेवक, इसका आदर करने वाले व इसका अनुमोदन करने वाले भी जययुक्त हों।
श्रीचैतन्य वाणीने हमें अपने तुच्छ स्वार्थों के केन्द्रों में न भटकाकर, सर्वकारण-कारण श्रीगोविन्द जी के केन्द्र बनाते हुए जीवन-यापन करने का उपदेश दिया है। प्राणियों की बहुत सी केन्द्रों वाली चेष्टाओं से सु-फल तो होता ही नहीं बल्कि आपसी एकता में भी बाधक है। हाँ, मूल केंद्र के अनुकूल यदि अगणित केन्द्र भी हों तो कोई नुकसान नहीं बल्कि ये तो एकता के बन्धन को दृढ़ ही करेंगे।
श्री चैतन्य वाणीने अन्याय, अधर्म, हिंसा तथा कुविचारों का प्रतिरोध करके एकता के प्रयत्नों का ही उपदेश दिया है।  प्रत्येक जीव की सत्ता, चिद्-तत्त्व से निकली है, चिद्-तत्त्व द्वारा ही संरक्षित है तथा चिद्-तत्त्व में ही चिर-संश्रित है। यहाँ तक कि अचित्सत्ता का भी चिद्-तत्त्व ही कारण है। अतएव तमाम चिद् व अचिद् सताएँ जिनके ऊपर सम्पूर्ण रूप से निर्भर हैं, वे ही तमाम कारणों के कारण, मूल चिद्-तत्त्व, भगवान् श्री कृष्ण सभी जीवों के एकमात्र आश्रय-स्वरूप हों-यही जीवों का मंगल करने वाली श्री चैतन्य वाणीका हार्दिक अभिप्राय है।
विरूप का अभिमान, दम्भ, दर्प, क्रोध, हिंसा, कपटता आदि सब परस्पर में भेद को उत्पन्न करते हैं तथा आपस में स्वार्थ के टकराव की स्थिति बना देते हैं। भगवद्-दास्य-अभिमान, अहिंसा, सरलता, सुनीचता, सहनशीलता, अमानित्त्व, मानदत्त्व तथा क्षमाशीलता आदि गुण मनुष्यों को आपसी प्रीति-सम्बन्धों की ओर आकृष्ट करते हैं। श्री चैतन्य वाणी’, चिन्मयी-सेवा-भूमिका में परस्पर सभी की मिलन-प्रयासी है। आनन्दमय, विभु व अकारण करुणामय प्रभु की निष्कपट सेवा-वृति ही जीव को श्रीभगवद्-सान्निध्य में ला देती है। अनु-चिद् का विभु-चिद् के साथ, दास का अपने नित्य प्रभु के साथ तथा आनन्द-कण का आनन्द-समुद्र के साथ सुमिलन होता है। आनंद के मिलने पर लेश मात्र भी दुःख नहीं रह पाता। भोग-पर्वृति अन्य-संग कराती है, जबकि त्याग-प्रवृति श्रीभगवद्-मिलन की हमराही बन जाती है।
श्री चैतन्य वाणीसभी जीवों का सतर्क करते हुए कहती है कि तुम्हारी तमाम सम्पदा, इन्द्रिय, मन, वाक्य व बुद्धि आदि, यदि अखिल रसामृत मूर्ति श्रीकृष्ण में नियोजित नहीं होंगे, तो निश्चित रूप से अशांति ही फैलायेंगे। ‘श्री चैतन्य वाणी’, देशवासियों के द्वार-द्वार पर जाकर उन्हें उनके वास्तविक स्वार्थ को समझाने के लिए उपदेश कर रही है। इसका कहना है कि शुद्ध जीव-सत्ता, स्थूल व सूक्ष्म शरीर की उपाधियों में आसक्त तथा आवृत है। पूर्व संस्कारवशतः, जड़ाभिनिवेश को परित्याग करने में असमर्थ होने से भी, जीव वर्तमान की अवांछित अवस्था में अपने अभीष्ट लाभ के लिए, श्रीकृष्ण-प्रीति के अनुकूल विषयों को स्वीकार करें तथा इसी भावना से ही शरीर व कुटुम्ब का पालन-पोषण करें। श्री चैतन्य वाणीभरोसा देते हुए कहती है कि जीव  केवल चरम व पूर्णानन्द की प्राप्ति का ही लक्ष्य रखें तथा आनन्द-प्राप्ति (भगवद्-प्राप्ति) के बाधक, जिन-जिन भोगों को परित्याग करने में उनको असमर्थता प्रतीत हो रही है, उन-उन भोगों को मज़बूरी से, दुःखी मन से व उसकी निन्दा करते हुए उन्हें अंगीकार करते हुए जीवन निर्वाह करते रहने से, जल्दी ही उन अवांछित अवस्थाओं से छुटकारा मिल जाएगा। अवांछित-अनुशीलन के प्रति, किसी भी अवस्था में आत्म-श्लाघा नहीं करनी होगी अर्थात् भगवान् की भक्ति के प्रतिकूल कार्यों को करने में अपना बड़प्पन नहीं मानना चाहिए। निरन्तर श्रीकृष्ण नाम के अनुकूल अनुशीलन के द्वारा अर्थात् श्रीकृष्ण नाम के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि के द्वारा श्रद्धालु व्यक्ति, धीरे-धीरे श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं।
हम वर्तमान में, परस्पर विरोधी व अति कष्टदायक हिंसा व प्रतिहिंसा से जर्जरित, अशान्त चित्त वाले मनुष्य-समाज के प्रति, दाँतों में तिनका लेकर अर्थात् अत्यन्त दीनता के साथ कातर भाव से श्री चैतन्य वाणीका बार-बार श्रवण-कीर्त्तन करने के लिए अनुरोध करते हैं।
श्री चैतन्य वाणीके संस्पर्श से मनुष्य-समाज, जड़ीय भावों को परित्याग करने में समर्थ हो जाता है। यही नहीं, ‘श्री चैतन्य वाणीके संस्पर्श में आकर, मनुष्य  मृत्यु-भय से मुक्त होकर, श्रीहरि की चिद्-लीला आस्वादन का अधिकारी हो सकता है।
श्री चैतन्य वाणीकृपा करके जीवों के कर्ण-कुहरों अर्थात् कानों में प्रविष्ट होकर, उन्हें तमाम क्लेशों से मुक्त करते हुए प्रेमामृत में आस्वादन का सौभाग्य प्रदान करा कर कृतार्थ करें-यही नववर्ष में इस दास की प्रार्थना है।

{अधोक्षज वस्तु की अप्राकृत इन्द्रियाँ हैं। उन्हीं इन्द्रियों के द्वारा वे अप्राकृत विलास करते हैं। उनका यह विलास नित्य है। उस विलास के ईंधन के रूप में प्रकाशित होना ही प्रत्येक जीव का आत्मधर्म है।}

Thursday 23 November 2017

भगवद्-भक्त की दासता

[श्रील गुरुदेव जी ने 2 मार्च 1961, 18 फाल्गुन की गौर पूर्णिमा तिथि के दिन, ‘श्री चैतन्य वाणीनामक, एकमात्र पारमार्थिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। इसी पत्रिका के पंचम वर्ष में प्रवेश करने पर उनकी वन्दना करते हुए, मठाश्रित सेवकों के आत्यन्तिक मंगल के लिए, परमाराध्य श्रील गुरु महाराज जी ने एक उपदेशावली प्रेषित की। ये उपदेशावली निम्न प्रकार से है।]
“नव वर्ष में हम सकातर भाव से ‘श्री चैतन्य वाणी’ की वन्दना करते हैं। वे अपने कृपा-बल से हमारे चित्त को विशुद्ध करते हुए, हमें अपनी सेवा में आत्मनियोग करने का सौभाग्य प्रदान करें। ‘श्री चैतन्य वाणी’ सर्वत्र विश्व में अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए, अपने वैभव को सुप्रतिष्ठित करें। ‘श्री चैतन्य वाणी’ के सेवक इस कंगाल के प्रति कृपा दृष्टिपात करें। सवैभव ‘श्री चैतन्य वाणी’ की जय हो।
सेवक बहुत प्रकार के होते हैं उनमें से प्रीति द्वारा प्रवर्तित, कर्त्तव्यबोध से परिचालित एवं अपने ही प्राकृत स्वार्थ से उत्साहित सेवक ही मुख्य रूप से देखे जाते हैं इनमें से तीसरे नम्बर वाले सेवक को शुद्ध-सेवक नहीं कहा जाता कारण, यहाँ पर सेव्य व सेवक का सम्बन्ध हमेशा रहने वाला नहीं है इस अवस्था में यदि उसका प्राकृत-स्वार्थ पूरा नहीं होगा तो उसकी सेवा बन्द हो जाएगी और सेव्य के साथ सम्बन्ध भी नहीं रहेगा वास्तव में ये बनिया-वृति की तरह कपटता मात्र है यहाँ अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए अर्थात् अपना काम हासिल करने के लिए ही सेव्य को स्वीकार किया जाता है और यहाँ पर जो प्रयोजन है, वह भी अनित्य है; इसलिए सेव्य और सेवक का सम्बन्ध भी अनित्य है अतः इस सेवा में नित्य-भूमिका का कोई अनुष्ठान नहीं है ये सब कर्मानुष्ठान ही है सर्वप्रथम कही गयी सेवा (अर्थात् प्रीति द्वारा की जाने वाली सेवा) ही सुनिर्मला है व नित्य है दूसरे नम्बर पर कही गयी सेवा, अनुराग द्वारा परवर्तित न होने पर भी, कर्त्तव्य व नीति बोध से उत्पन्न होने के कारण व नित्य स्थितशील होने के कारण उसे सेवा कहा जा सकता है अनुराग से उत्पन्न अथवा विधि या कर्त्तव्य-जनित सेवा ही सेवा-शब्द वाच्य है इन्हें ही “राग भक्ति” व “विधि भक्ति” कहते हैं इन दोनों अवस्थाओं में सेवा नित्य है तथा सेव्य व सेवक का सम्बन्ध भी नित्य है
वैसे सेवक स्वतन्त्र होता है, परन्तु उसकी स्वतंत्रता, सेव्य की प्रीति के परतन्त्र होने के कारण, कोई-कोई सेवक को परतन्त्र भी कहते हैं, प्रीति-सूत्र में बंधने पर भी, स्वतंत्रता का अभाव वहाँ नहीं है, हाँ, स्वेच्छाचारिता कहने से जो समझा जाता है, वह सेवक में नहीं होती सेवक कोई लकड़ी की गुड़िया नहीं है चित्त्-जगत् की वस्तु होने के कारण, सेवक की स्वतंत्रता नित्य स्वीकारणीय है; किन्तु ये स्वतंत्रता कभी भी सेव्य की सेवा के विरोध में प्रयुक्त नहीं होती दो स्वतन्त्र वस्तुओं के आपसी प्रीति-पूर्ण मिलन से ही ‘रस’ की उत्पत्ति होती है उक्त ‘प्रेम-रस’, सेव्य व सेवक दोनों को प्रफुल्लित करता है तथा इसी कारण वे एक-दूसरे से विच्छेद को सहन करने में असमर्थ हो जाते हैं कभी-कभी प्रेम की गाढ़ता को बढ़ाने के लिए विरह की आवश्यकता भी दिखाई देती है- ये ही ‘चिद्-विलास’ है सेवक की बहुत तरह की सेवा देखी जाती है शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा कान्त भावों में कर्मशः सेवा की उत्कृष्टता होती है किसी भी भाव में सेवा-वृति का अभाव नहीं है सेवा, बोधमयी व सुख-स्वरूपा होती है; अज्ञान रूपा नहीं होती इसलिए भक्ति को आचार्य लोग ‘ह्लादिनी-सार-समाश्लिष्ट सम्वित्वृति’ कहते हैं
भगवद्-भक्त अथवा सेवक की पदवी को प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ-श्रेष्ठ देवता भी इच्छा करते हैं थोड़े से भाग्य से कोई भी भगवद्-भक्त नहीं कहला सकता पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी पदवी, भगवद्-भक्त की पदवी के बराबर नहीं हो सकती जिनको भगवद्-तत्त्व का बोध नहीं है अर्थात् जो भगवद्-तत्त्व को नहीं जानते, वे भक्त की मर्यादा को भी नहीं जान सकते अतः भगवद्-भक्त की अमर्यादा करने वाला, तत्त्वहीन व्यक्ति मूढ़ है और कुछ भी नहीं अतः अपने सौभाग्य को अपने पैरों तले कुचलने वाला ही, भगवद्-सेवक को तुच्छ समझता है सेवक, सेव्य को सेवा को तारतम्यता के अनुसार वश में कर लेता है अनन्त ब्रह्माण्ड और उनमें रहने वाले अनंत जीवों की सृष्टि व लय के मूल कारण जो भगवान् हैं, वे कितने महान् है तमाम ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्य उनमें परिपूर्ण मात्रा में हैं जो भगवान् समस्त तत्त्वों की खान हैं, वे भगवान् भी जिनके प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं; वे भगवद्-विजयी ‘भक्त लोग’ कितने महान् हैं, जाना नहीं जा सकता इस प्रकार देखा जाता है कि भगवद्-सेवक की मर्यादा ही ब्रहमांड में सर्वोपरि है
सेवक की समीपता, सेव्य की समीपता दिलाती है सेवक की सेवा, सेव्य की सेवा प्रदानकारी व सेव्य को वशीभूत कराने वाली होती है इसलिए विवेकी लोग अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए, श्रीभगवद्-सेवक के आज्ञावाही दास, साधु-भक्त-संगी और सेवक होते हैं भक्त अथवा दास की भक्ति व सिद्धि सुनिश्चित् है
भगवद्-भक्त लोग भगवान् की अनेकों प्रकार की सेवाएँ प्रकट करते हैं एवं नाना प्रकार की योग्यता वाले, मंगल-प्रार्थी साधकों को उनकी योग्यता के अनुसार, सेवा का सौभाग्य प्रदान करते हैं, वह सेवा ही धीरे-धीरे उनको श्री भगवद्-प्रेम प्राप्ति कराने का कारण बनती है भगवद् भक्त की दासता ही श्रीभगवद्-प्राप्ति का मुख्य उपाय है


{शुद्ध-भक्त का संग ही भक्ति का हेतु एवं पोषक है।}

Sunday 19 November 2017

भगवद्-कृपा प्राप्ति का उपाय: शुद्ध-भक्त का आनुगत्य’




भगवान् अस्मोध्..र्व तत्त्व हैं इसलिये उन्हें कोई भी अपनी योग्यता के बल पर नहीं जान सकता यदि ऐसा माना जाये कि किसी ने अपनी योग्यता के बल पर भगवान् को प्राप्त कर लिया है तो इससे भगवान् की भगवत्ता, सर्वशक्तिमत्ता व उनका असीमत्त्व नहीं रहता भगवान् की इच्छा ही भगवान् को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है और भगवान् की इच्छा का अनुसरण करने का दूसरा नाम प्रीति व भक्ति है हम यदि भगवान् की इच्छा अर्थात् श्रुति और स्मृतियों के अनुसार चलें तो हमारे लिये यही भगवान् की कृपा प्राप्त करने का उपाय स्वरूप होगा किन्तु प्रश्न यह है कि भगवान् की प्रीति के अनुकूल शास्त्र का विधान समझ में कैसे आयेगा, इसके उत्तर में कहते हैं कि उसके लिये सत्संग की एवं शुद्ध-भक्त का आनुगत्य करने की आवश्यकता है
भक्ति दो प्रकार की होती है – वैधी और रागानुगा श्रीकृष्ण रागानुगा भक्ति के ही वशीभूत हैं एक भक्त ने कहा है –
‘श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारतमन्ये भजन्तु भव भीताः
अह मिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परब्रह्म।।
(चै.च.म. 19/96 पद्यावली 1/126 से उद्धरित)
कई व्यक्ति संसार सागर से भयभीत हो कर श्रुति, कई स्मृति तो कई भयभीत होकर महाभारत का भजन करते हैं मैं कहता हूँ यदि वे ऐसा करते हैं तो करें किन्तु मैं तो नन्द महाराज की वन्दना करता हूँ जिनके आंगन में परब्रह्म श्रीकृष्ण नाना प्रकार के खेल खेलते हैं
नन्द महाराज एवं यशोदा माता ने असीम वस्तु को अपने शुद्ध प्रेम द्वारा वशीभूत कर लिया है यदि ऐसे भक्त के दरवाज़े तक मैं जा सकूँ तो भगवान् के दर्शन तो अपने आप ही हो जायेंगे दोनों तरफ़ की बात को समझने के लिये हमें सावधानी से चेष्टा करनी होगी भगवद् भक्त हमेशा भगवान् का सुख चाहते हैं यदि कोई व्यक्ति भगवान् के सुख की इच्छा करता है तो उसकी इस भावना व क्रिया के फलस्वरूप भक्त उसके गुलाम हो जाते हैं जबकि दूसरी ओर भगवान् हमेशा अपने भक्तों का सुख चाहते हैं इसलिये भक्त को प्रेम करने से भगवान् उसके वशीभूत हो जाते हैं और यही कारण है कि भगवद्-भक्त की प्रेमवश सेवा करने वाले व्यक्ति भगवान् की कृपा अति सहजता से प्राप्त कर सकते हैं अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि “If you love me, love my dog.”— भगवान् को प्रेम करना कठिन नहीं है, इस प्रेम में विद्या, ऐश्वर्य, रूप, यौवन आदि की आवश्यकता नहीं है—
जन्मैश्वर्यश्रुत-श्रीभिरेधमानमदः पुमान्
नैवर्हत्यभिधातुं वै त्वामकि..न्चनगौचरम्।।
(श्रीमद्भा. 1/8/26)
अर्थात् जो व्यक्ति जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य और रूप आदि के अभिमान में प्रमत्त  रहते हैं, वे लोग अकिन्चन व्यक्तियों के ग्रहणीय श्रीकृष्ण नाम का कीर्त्तन करने में असमर्थ होते हैं
दुनियाँदारी के अभिमान यदि हमारे दिल में स्थान बना लें, और यदि हम कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहें तो ऐसे चित्त में भगवान् का आगमन कैसे होगा? बाहर दरवाज़े पर ‘स्वागतम्’ लिखा रहने पर भी अन्दर कूड़ा-कर्कट भरा रहने के कारण बैठने का स्थान न देखकर घर आया हुआ व्यक्ति जैसे वापस चला जाता है, उसी प्रकार बाहर-बाहर से हम भगवान् के स्वागत की बात करें और हृदय में और-और कामनायें भरकर रखें तो ऐसे में यदि भगवान् आ भी जाएँ तो बैठने का स्थान न देखकर वापस चलें जायेंगे

Footnote: वैधी भक्ति : जिस समय बद्ध जीव का कृष्णेतर विषयों में प्रगाढ़ अनुराग होता है, उस समय उसका कृष्ण के प्रति अनुराग न के बराबर होता है। ऐसी दशा में कल्याणकामी जीव केवल शास्त्र की आज्ञा से कृष्ण का भजन करता है। यह भजन ही वैधभजन है।
रागानुगा भक्ति : श्रीदाम-वसुदाम, श्रीनन्द-यशोदा और ललिता-विशाखा आदि व्रजवासियों की श्रीकृष्ण के प्रति रागात्मिका-भक्ति होती है। और उन व्रजवासियों के भावों के अनुगत रहकर जो साधनभक्ति की जाती है, उसे रागानुगा भक्ति कहते हैं। इष्ट वस्तु श्रीनन्दनन्दन के प्रति प्रगाढ़ तृष्णा राग का स्वरूपलक्षण है तथा उनमें गाढ़ी आसक्ति–राग का तटस्थलक्षण है। ऐसी रागमयी भक्ति को रागात्मिका भक्ति कहते हैं


{“ब्राह्मणानां सहस्त्रेभ्यः सत्रयाजी विशिष्यते।
सत्रयाजिसहस्त्रेभ्यः सर्ववेदान्तपारगः।।”
“सर्ववेदान्तवित्कोट्या विष्णुभक्तो विशिष्यते।
वैष्णवानां सहस्त्रेभ्यः एकन्त्येको विशिष्यते।।”
(भक्ति संदर्भ 177 संख्याधृत गारुड़ वाक्य)

अर्थात् हज़ार ब्राह्मणों की अपेक्षा एक याज्ञिक श्रेष्ठ है, हजार याज्ञिकों की अपेक्षा एक सर्ववेदान्त शास्त्रज्ञ श्रेष्ठ है। एक करोड़ सर्ववेदान्त शास्त्रज्ञों की अपेक्षा एक विष्णु भक्त श्रेष्ठ है। हज़ार वैष्णवों की अपेक्षा एक एकान्तिक (अनन्य) भक्त श्रेष्ठ है।}

Friday 17 November 2017

सच्चिदानंदविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं।

सच्चिदानंदविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं। वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणों के कारण हैं।

श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी ने भी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को ही सर्वोत्तम आराध्य रूप से निर्देश किया है जीव की हर प्रकार की इच्छित वस्तु की सर्वोत्तम परिपूर्ति एक मात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना से ही हो सकती है किन्तु ये सब बातें हम समझेंगे कैसे? जब तक हमारा (prejudice) स्वार्थ रहेगा, तब तक हम समझ नहीं सकेंगे भगवद् तत्त्व को समझने के लिये हमें जिस ज्ञान व अधिकार की आवश्यकता है, वह ज्ञान व अधिकार न आने तक सांसारिक बहुत सी योग्यता रहने पर भी हम उसकी (उस भगवद् तत्त्व की) उपलब्धि नहीं कर पायेंगे अधिकार प्राप्ति के लिये हम किसी भी तरह का साधन करने के लिए तैयार नहीं हैं दम्भ से उन्हें नहीं जाना जा सकता, कारण, वे unchallengeable truth हैं उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:-
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः।।
(श्रीगी. – 4/34)
“तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की विधि बताते हुए कह रहे हैं – अर्जुन! ज्ञान का उपदेश करने वाले गुरु के पास जाकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके जिज्ञासा करो, हे भगवन्! मैं संसार में क्यों फंसा हुआ हूँ? इससे किस प्रकार छुटकारा मिलेगा? इस प्रकार परिप्रश्न (युक्तिसंगत प्रश्न) करने के पश्चात् सेवा पूजा के द्वारा उन्हें प्रसन्न करो।”

(श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु: श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु त्रिकाल सत्य, पुराण पुरुष हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन् 1486 में श्रीनवद्वीप क्षेत्र के अंतर्गत श्रीधाम मायापुर में अवतरित हुए। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को परमतम् ‌‍‍‌तत्त्व एवं उनके साथ जीव की भेदाभेद सम्बन्ध की बात बताई है। श्रीमन्महाप्रभु जी के अनुसार कलियुग में कृष्ण-प्रीति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है, श्रीकृष्ण नामसंकीर्त्तन। जगत् के जीवों को श्रीकृष्ण–भक्ति की शिक्षा देने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ही श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए। श्रीभागवत पुराण में, भविष्य पुराण में, महाभारत में, मुण्डकादि उपनिषदों में इस सम्बन्ध में बहुत प्रमाण होने से यह बात सिद्ध होती है।)
                                                                  

{भगवान् की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}

Thursday 9 November 2017

भगवान् की आराधना के लिये भगवद्-त्तत्व को समझने की ज़रूरत है

आसाम प्रचार-भ्रमण के समय श्रील गुरु महाराज जी गोहाटी में कुछ दिन रहे। उस समय आसाम के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री गोपीनाथ बड़दलई जी के निवास पर भागवत पाठ की व्यवस्था हुई थी। श्रीगुरु महाराज जी के श्रीमुख से शुद्ध भक्ति सिद्धान्त सम्मत एवं सुयुक्तिपूर्ण श्रीमद् भागवत की अपूर्व ह्रदयग्राही व्याख्या सुनकर सभी श्रोता मुग्ध हो जाते। एक दिन श्री गोपीनाथ बड़दलई भागवत पाठ के समाप्त होने पर श्रील गुरु महाराज जी की भागवत व्याख्या की हार्दिक प्रशंसा करते हुए कहने लगे- “आपसे भागवत पाठ सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि आपके भागवत पाठ का उद्देश्य एवं महात्मा गाँधी जी के भाषणों का उद्देश्य एक ही है। आप भी अनेक शास्त्र-प्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा बहुत कुछ समझाने के बाद सभी से कृष्ण नाम करवाते हैं और गाँधी जी भी अपने भाषणों में अनेक प्रसंग सुना कर अन्त में सभी को ‘रामधुन’ करवाते हैं। आप दोनों का ही उद्देश्य है- सभी को हरिनाम करवाना। मैं तो आप दोनों में कोई भी अन्तर नहीं देखता हूँ। आपका इस सम्बन्ध में क्या मत है, मैं जानना चाहता हूँ।”


         श्री गोपीनाथ बड़दलई की श्रील गुरुदेव के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा व प्रीति होने की वजह से श्रील गुरु महाराज जी ने सोचा कि यदि अब इन्हें अप्रीतिकर सत्य बात कही जाये तो ये सहन कर लेंगे, क्योंकि कई बातें सत्य होने से भी वह सभी को, सभी समय नहीं कही जा सकती। इसलिए विद्वान् व्यक्ति, ग्रहण करने का अधिकारी देखकर, उसके अधिकार के अनुसार ही उसे उपदेश देते हैं।
श्रील गुरु महाराज जी ने मुस्कराते हुए श्रीबड़दलई को कहा- ‘यदि आप नाराज़ न तो मैं अपना अभिमत व्यक्त करूँ?”
उत्तर में श्रीगोपीनाथ बड़दलई जी ने कहा- ‘आपके मूल्यवान उपदेशों को सुनकर हम कृतार्थ हुए हैं। हमने इस प्रकार की ज्ञान से परिपूर्ण भागवत व्याख्या कभी किसी से नहीं सुनी थी। आप हमारे मंगल के लिये कुछ कहें और हम असन्तुष्ट हों, ये हो ही नहीं सकता। आप, स्वछन्दतापूर्वक अपना अभिमत व्यक्त कर सकते हैं।’

तब श्रील गुरुदेव जी ने कहा- जब मैं अपने घर में रहता था, तब कांग्रेस के स्वाधीनता आन्दोलन से भी कुछ जुड़ा हुआ था। उस समय साबरमती से कांग्रेस की ‘Young India’ नामक एक अंग्रेजी पत्रिका प्रकाशित होती थी। मैं उस पत्रिका को पढता था। उसमे एक बार एक लेख मैंने पढ़ा था कि गाँधी जी ने किसी स्थान पर अपने भाषण में, देशवासियों को अपना देश-प्रेम जताने के लिये कहा था की यदि जरुरत पड़े तो वे देश के लिये अपनी अत्यन्त प्रिय ‘रामधुन’ का भी परित्याग कर सकते हैं। जहाँ तक मुझे याद है, पत्रिका में लिखा था- I can sacrifice ‘Ramdhun’ for my country, किन्तु हम लोग ठीक इसके विपरीत हैं- ‘we can sacrifice country for Ramdhun’. हमारे आराध्य ‘राम’ किसी के लिये नहीं हैं; वे स्वयं अपने लिये हैं एवं समस्त वस्तुएँ उनके लिये हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी ‘Absolute’ को इसी प्रकार संज्ञा दि है- ‘Absolute is for itself and by itself’, हम लोग It God नहीं कहते। हमारे भगवान् परम पुरुष हैं, इसलिए हम लोग कहते हैं कि “Absolute is for HImself and by Himself’ । भगवान् से ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड आते हैं; भगवान् में ही उनकी स्थिति है तथा भगवान् के द्वारा ही उनका संरक्षण होता है- इसलिए अनन्त करोड़ विश्व-ब्रह्माण्ड भगवान् के लिये हैं। भगवान् की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।”

Monday 6 November 2017

Sunday 5 November 2017

ज्ञान का सार


श्रीभक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं - "ज्ञान का सार है कि जीवन अनित्य है एवं अनेक विपदाओं से ग्रस्त है । श्रीहरिनाम का पूर्ण आश्रय लेकर के अपने कर्तव्य - कर्मों को करते रहना चाहिए । हरि - नामामृत  का पान करके त्रितापों की जलन को शान्त करें। इस चौदह - भुवनों के ब्रह्मांड में हरिनाम से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है।
साधु - संग में दस तरह के नामापराधों से रहित शुद्ध - नाम का कीर्तन ही सांसारिक कष्टों कि निवृति व पूर्णानन्द की प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। भक्ति में उन्नति व शाश्वत मंगल लाभ करने के लिए श्रीकृष्ण - विमुख सांसारिक लोगों के प्रतिकूल संग का त्याग करना आवश्यक है। " 

Thursday 2 November 2017

कहाँ हैं तुम्हारे भगवान्: श्रील गुरुदेव जी का डा. सी.वी. रमन जी से कथोपकथन


[परमाराध्य श्रील गुरुदेव में विषयवस्तु को अतिशीघ्र ग्रहण करने एवं साथ-साथ उसका सदुत्तर देने की अलौकिक शक्ति कई स्थानों पर देखी गयी। वे आधुनिक युग के तार्किक मनुष्य को अति आधुनिक युक्ति और उदहारण के साथ समझाने की असाधारण क्षमता रखते थे। इसलिए जो भी उनके पास आते, वे ही उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाते थे। श्रील गुरुदेव जी हरिकथामृत वितरण के समय किस प्रकार के मार्मिक उदहारण दिया करते थे, उनके आश्रित लोग तो जानते ही हैं। जो लोग उनके समीप नहीं आ पाये, उनके लिए एक घटना (विश्वविख्यात वैज्ञानिक डा.सी.वी. रमन जी से श्रील गुरु महाराज जी की वैज्ञानिक युक्तिपूर्ण तथा भक्ति में उत्साहवर्धक प्रश्नोत्तरी) उल्लेखित की जा रही है जो कि हरिकथा प्रसंग में श्रील गुरु महाराज जी के श्रीमुख से ही हमने सुनी है।]
            यह सन् 1930 की बात है, तब श्रील प्रभुपाद जी प्रकट थे। श्रीप्रभुपाद जी के प्रकट काल में कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में विशाल धर्म-सम्मलेन होता था, जो कि एक महीने तक चलता था। इस सम्मलेन में प्रतिदिन कोई न कोई विशिष्ट व्यक्ति सभापति का आसन ग्रहण करता था। उक्त धर्म सम्मलेन में भारत के विख्यात वैज्ञानिक डा.सी.वी. रमन के छात्र भी श्रीगौड़ीय मठ के विद्वान् स्वामियों के प्रवचनों को सुनने के लिए आते थे। एक दिन सभी छात्र मिल कर श्रील प्रभुपाद जी के पास गये और उन्होंने निवेदन किया कि हम देखते हैं की आपके इस धर्म-सम्मेलन में प्रतिदिन कलकत्ता के किसी न किसी विशिष्ट व्यक्ति को सभापति के आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित किया जाता है, परन्तु हमारे अध्यापक डा.सी.वी. रमन जी को निमन्त्रित नहीं किया जाता। ऐसा क्यों? उनका नाम तो सारे विश्व में विख्यात है। छात्रों की बात सुनकर प्रभुपाद जी ने कहा कि उनको निमन्त्रण करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा कह कर श्रील प्रभुपाद जीने हमारे गुरुदेव जी को निर्देश दिया कि वे डा.सी.वी.रमन जी को धर्म सम्मलेन में सभापति पद ग्रहण करने के लिए निमन्त्रण दें।

                श्रील गुरुदेव जी डा.सी.वी.रमन से मिलने पहले उनके घर गये परन्तु डा.रमन उस समय घर पर नहीं थे। उनकी स्त्री ने बताया कि इस समय वे सरकुलर रोड़ पर स्थित अपनी laboratory (गवेषणागार) में होंगे। श्रीमती रमन का जवाब सुनकर श्रील गुरुदेव जी एक चपरासी के साथ, जो कि श्रीमती रमन ने ही श्रील गुरुदेव जी के साथ भेजा था, डा.रमन की लेबोरेटरी पर पहुँचे। डा. रमन के साथ जब श्रील गुरुदेव जी का साक्षत्कार हुआ, उस समय वे अपनी लेबोरेटरी की दूसरी मन्ज़िल ने स्थित एक बड़े हाल के कोने में बैठे हुए अकेले ही कुछ गवेषणा कर रहे थे। डा. रमन बंगला या हिन्दी अच्छी तरह से नहीं जानते थे, इसलिए श्रीगुरुदेव जी की उनके साथ अंग्रेज़ी में ही बातचीत हुई।

                सर्वप्रथम डा.रमन ने श्रीलगुरुदेव जी से उनके आने का कारण पूछा। श्रील गुरुदेव जी ने कहा- ‘कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी उपलक्ष्य में मासव्यापी धर्म-सम्मलेन होता है, जिसमे प्रतिदिन कलकत्ता के कोई न कोई विशिष्ट सज्जन सभापति का आसन ग्रहण करते हैं। आप भी एक दिन सभापति के आसन को अलंकृत करें, ये ही हमारी प्रार्थना है।’
श्रील गुरुदेव जी की बात सुनकर डा.रमन ने कहा-‘तुम्हारे केष्ट-विष्ट् को (यानि कृष्ण-विष्णु को) मैं नहीं मानता हूँ। इन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष नहीं होती, ऐसी काल्पनिक वस्तुओं के लिए मैं समय नहीं दूँगा। मेरा समय बहुत कीमती है। हाँ विज्ञानं या शिक्षा के विषय में कोई सभा होने से मैं जा सकता हूँ।’
                 
श्रील गुरुदेव : आपके छात्र प्रतिदिन बाग बाज़ार स्थित गौड़ीय मठ में स्वामी जी लोगों के भाषण सुनने के लिए आते हैं। उसी सभा में हम कलकत्ता के विशिष्ट व्यक्तियों को सभापति बनाते हैं। आपके छात्रों की ही इच्छा है कि एक दिन आप भी सभापति का आसन ग्रहण करें। अपने गुरुदेव जी के निर्देशानुसार मैं आपको निमन्त्रण देने आया हूँ। आप हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लीजिए।

डा.रमन: क्या तुम अपने भगवान् को दिखा सकते हो? यदि दिखा सको, तो जाऊँगा।
[जिस हाल (hall) में बातचीत हो रही थी, उस हाल के एक ओर कोई भी खिड़की या दरवाज़ा नहीं था, सिर्फ एक लम्बी दीवार थी, जिसके दूसरी ओर पूरा उत्तरी कलकत्ता था।]

श्रील गुरुदेव: अपने सामने खड़ी इस दीवार के पीछे मैं कुछ नहीं देख पा रहा हूँ, यदि मैं कहूँ कि इस दीवार में पीछे कुछ नहीं है, तो क्या मेरी बात सच होगी?

डा.रमन: तुम नहीं देख सकते हो, परन्तु मैं अपने यन्त्र में द्वारा देख सकता हूँ?

श्रील गुरुदेव: यन्त्र की भी तो एक सीमा है। जितनी दूर यन्त्र की योग्यता है, माना व हाँ तक आपने देख लिया परन्तु उसके बाद कुछ नहीं है-ऐसा कहना क्या सच होगा?

डा.रमन: हो या न हो, उसके लिए मैं समय नहीं दूँगा। जो बात मेरे sense experience में नहीं आ सकती, उसके लिए मैं अपना कीमती समय नहीं दे सकता। क्या तुम भगवान् को दिखा सकते हो? यदि दिखा सको मैं समय दूँगा।
श्रील गुरुदेव: अपने जो वैज्ञानिक सत्य अनुभव किये है, यदि आपके छात्र आपसे ये प्रश्न करें कि पहले हमें वैज्ञानिक सत्य का अनुभव कराओ बाद में हम आपकी शिक्षा की ओर ध्यान देंगे, तब आप उन्हें क्या कहेंगे?

डा.रमन: (उच्च स्वर से) I shall make them realize; (मैं उन्हें अनुभव करा दूँगा।)

श्रील गुरुदेव: न, पहले आप अनुभव करा दें, बाद में वे आपके पास शिक्षा ग्रहण करेंगे?
डा.रमन: नहीं, जिस पद्धति को अवलम्बन करके मैंने वैज्ञानिक सत्यों का अनुभव किया है, वही पद्धति उन्हें भी ग्रहण करनी होगी। (No, they are to come to my process through which I have realized the truth.) पहले उन्हें फलाँ विषय को लेकर B.Sc. पढ़नी होगी, उसके बाद M.Sc. करनी होगी। उसके बाद यदि पांच-छः साल वह मेरे पास पढ़े, तब मैं उनको समझा सकता हूँ।
श्रील गुरुदेव: आपने जो बात कही, क्या भारतीय ऋषि-मुनि लोग उस बात को नहीं कह सकते? उन्होंने जिस पद्धति से आत्मा-परमात्मा-भगवान् को अनुभव किया है, आप भी उसी पद्धति को अवलम्बन करके देखें कि भगवान् को अनुभव किया जा सकता है या नहीं? आप अपने उपलब्ध लौकिक वैज्ञानिक सत्य को भी अपने छात्रों को अनुभव नहीं करा पा रहे हैं, उसके लिए उन्हें विभिन्न प्रकार की विधियों को अपनाना पड़ रहा है तो जो सर्वशक्तिमान, इन्द्रिय-ज्ञानातीत, अलौकिक परमेश्वर हैं, उन्हें क्या आप ऐसे ही जान सकते हैं? इसलिए जिस उपाय से भगवान् की उपलब्धि होती है आप भी उसी उपाय को ग्रहण करके देखो-होती है या नहीं? यदि उपलब्धि न हो तो आप छोड़ देना परन्तु पहले ही आप कैसे मना कर सकते हैं? डा. रमन कोई जवाब न दे सके।
कुछ समय पश्चात् डा.रमन अपने आप कहने लगे कि वे कृष्ण सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, वहाँ जाकर वे क्या कहेंगे? इस विषय को जो जानते हैं उन्हें निमन्त्रण करना अच्छा है।
श्रील गुरुदेव जी की प्रत्युत्पन्नमतित्व एवं उपस्थित बुद्धि इस प्रकार थी कि उनके सामने कोई अयुक्ति की बात कहकर टिक नहीं सकता था। केवल तथाकथित विद्वता के द्वारा ये असाधारण योग्यता सम्भव नहीं है। जो शिष्य गुरुदेव के प्रति समर्पित-आत्मा हैं, जिन्होंने गुरुदेव जी की कृपा से सत्य वस्तु को साक्षात् अनुभव कर लिया है, गुरु शक्ति के प्रभाव से वे एक प्रकार की ऐसी ईश्वरीय शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, जिसके सामने भगवद्-अनुभूतिरहित व्यक्तियों की बुद्धिमत्ता नहीं चल पाती।




{यथार्थ ज्ञानी व्यक्ति कभी भी व किसी भी अवस्था में धैर्य नहीं खोते।}

साधन-चेष्टा का फल क्यों नहीं मिलता?; एक वृद्धा महिला के संशय का निवारण


[यह प्रसंग सन् 1954 में जालन्धर प्रचार के दौरान घटित हुआ। उस समय श्रील गुरुदेव विभिन्न मंदिरों में भागवत् पाठ कर हरिकथामृत वितरण करते थे। श्रील गुरुदेव प्रतिदिन प्रातःकाल श्री नोहरिया मन्दिर में भागवत-शास्त्र के माध्यम से उपदेश प्रदान करते थे। नोहरिया मन्दिर में श्रीसीता-राम, श्रीहनुमान जी की मूर्तियाँ और शिवलिंग विराजित थे। यह प्रसंग मंगल चाहने वाले साधकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।]
प्रसंग कुछ इस प्रकार से है कि एक वृद्धा महिला ने दो दिन हरिकथा सुनने के पश्चात् श्रीगुरुदेव जी से पंजाबी भाषा में एक प्रश्न किया। श्रीलगुरुदेव जी पंजाबी भाषा अच्छी तरह नहीं समझ पाते थे। वे प्रवचन हिन्दी में ही करते थे। वृद्धा की बात का सही तात्पर्य न समझ पाने पर उन्होंने नारायण ब्रह्मचारी (जिनका पूर्वाश्रम लुधियाना, पंजाब में है) से पूछा तो नारायण ब्रह्मचारी ने बताया की वृद्धा का प्रश्न यह है कि वह पचास वर्षों से सीता राम मन्दिर में आ रही है, यहाँ तक कि एक दिन का भी नागा उसने नहीं किया। वह (50 सालों से) प्रतिदिन ठाकुर जी की आरती दर्शन, मन्दिर परिक्रमा एवं हरिनाम करती आ रही है तथा किसी के भी द्वारा गीता, भागवत् व रामायणादि का पाठ करने पर वह सुनती भी है। वह नियमित रूप से इसी प्रकार करती आ रही है और अब बूढ़ी हो गई है किन्तु उसका सीताराम जी में बिन्दु मात्र भी प्रेम नहीं हुआ जबकि उसकी संसार में पुत्र-कन्या, नाती-पोतों में और भी आसक्ति बढ़ गई है, इसका क्या कारण है?
यदि भगवान में प्रेम ही नहीं हुआ तो इन सब साधनों का फल क्या है?
वृद्धा का प्रश्न सुनकर श्रील गुरुदेव जी बहुत ही प्रसन्न हुये। उन्होंने उस दिन की सभा में ही वृद्धा को बात को उठाते हुये कहा कि जो यहाँ पर प्रतिदिन मन्दिर में ठाकुर जी के दर्शनों के लिये आते हैं उन सब के लिये इस विषय में सुनना उचित है। मैं कल की सभा में ही इस प्रश्न का उत्तर दूँगा।
अगले दिन प्रातः श्रील गुरुदेव जी ने वृद्धा के प्रश्न की अवतारणा करते हुये सबसे पहले उनसे यह जानना चाहा, कि क्या उन्होंने कभी किसी दिन किसी से सीता-राम जी के स्वरूप, अपने स्वरूप, जगत् के स्वरूप व सीता-राम जी के साथ उनका क्या सम्बन्ध है- इन सब विषयों के बारे में जिज्ञासा की है या भेड़ चाल की तरह ही वे मन्दिर में आ रही हैं अथवा कभी किसी से इन सब विषयों की जिज्ञासा करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की?
क्योंकि सम्बन्ध-ज्ञान के उदय हुये बिना कभी भी भगवान् में प्रीति नहीं हो सकती। सम्बन्ध-ज्ञान के द्वारा ही प्रीति होती है। व्यवहारिक जगत् में किसी के परिचय पूछे जाने पर हम उसे सांसारिक परिचय ही देते है जैसे अमुक मेरे पिता है, अमुक मेरी माता है, मैं अमुक का पुत्र, पति व स्त्री इत्यादि हूँ। सांसारिक सम्बन्धों का ज्ञान रखकर ही हम मन्दिर में आते हैं, ठाकुरजी के दर्शन करते हैं, हरिकथा आदि सुनते है व सभी कुछ करते हैं- इन सब साधनों से भगवान् में प्रीति तो होती ही नहीं बल्कि संसार में ही आसक्ति बढ़ती है। इन सब कार्यों को पुण्य व धर्म कहते हैं, भक्ति नहीं कहते।
अभिमान ही कर्म का प्रवर्त्तक है। प्राकृत अस्मिता- मैं संसार का हूँ, ये भावना या वृत्ति परित्यज्य है किन्तु अप्राकृत अस्मिता कि मैं भगवान् का दास हूँ, इस प्रकार की वृत्ति परित्यज्य नहीं है।

मैं संसार का हूँ- इसी ज्ञान से हम संसार के लिये, स्त्री-पुत्र आदि के लिये कार्य करते हैं। मठ मन्दिर में आने पर भी संसार के स्वार्थों की सिद्धि के लिये ही आते हैं, भगवान् के लिये नहीं आते। यह स्वाभाविक ही है कि जहाँ पर हमारा अभिमान होगा, जिनके लिये हम कार्य करेंगे, उनके प्रति ही हमारी प्रीति होगी। जब मैं समझूंगा कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् से ही सब प्रकार से मेरा नित्य सम्बन्ध है, अर्थात् अप्राकृत शुद्ध-अस्मिता जब प्रकट होगी, तब भगवद्-प्राप्ति ही मेरी सबसे बड़ी आवश्यकता है, ऐसा ज्ञान हो जाएगा तथा तब मैं स्वाभाविक ही भगवान् के लिये कार्य करूँगा। भगवान् में स्वार्थबोध अर्थात् भगवान् ही हमारी परम आवश्यकता हैं, ऐसा ज्ञान होने पर मैं अपने को एवं अपना कह कर जो कुछ है वह सब भगवान् को अर्पित कर पाऊँगा। इस प्रकार की अवस्था में ही भगवान् में प्रीति और प्रेम होना सम्भव है। सद्गुरु या शुद्ध-भक्त की कृपा से सम्बन्ध उदय होता है। सम्बन्ध-ज्ञान से पहले भगवान् की आराधना सम्भव ही नहीं होती। हम लोग सम्बन्ध-ज्ञान की प्राप्ति के लिये अधिक ध्यान नहीं देते, इसीलिये उपयुक्त फल भी प्राप्त नहीं कर पाते। सम्बन्ध-ज्ञान के पश्चात् अभिधेय (अर्थात् साधन) तथा साधन के द्वारा प्राप्त वस्तु को प्रयोजन कहते हैं। सनातन धर्म के शास्त्रों में तथा सभी महानुभावों में उपदेशों में तीन विषय ही विशेष रूप से आलोचित हुये हैं- सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन। पारमार्थिक जीवन की प्रथम सीढ़ी सम्बन्ध-ज्ञान ही है।

भगवान् और माया: भगवद्-तत्त्व जिज्ञासु शिष्य का मार्गदर्शन


[यह मार्मिक वार्तालाप एक भगवद्-तत्त्वजिज्ञासु शिष्य (श्रीकामाख्या चरण नामक नवयुवक) एवं आत्मदर्शी श्रील गुरुदेव (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) के मध्य में घटित हुआ। श्रीकामाख्या चरण नश्वर देह और देह से सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रति शोक-मोहादि की लीला करते हुए श्रील गुरु महाराजजी के समक्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके श्रील गुरूदेव के समक्ष युक्तिसंगत प्रश्नों को रखकर उनसे उपदेश देने की प्रार्थना की। तब श्रील गुरु महाराजजी ने श्रीकामाख्या चरण को लक्ष्य करके जो शास्त्रोचित उपदेश दिया वह संसार के समस्त बद्ध जीवों के लिए नितांत मंगलकारी है। जिसके फलस्वरूप श्रीकामाख्या चरण ने संसार-त्याग करने का संकल्प लिया श्रीकामाख्या चरण, जो बाद में श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी के नाम से परिचित हुए एवं वर्त्तमान में परमराध्यतम् श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराजजी के नाम से विख्यात हैं, इस उपाख्यान के वर्णनकर्ता भी हैं]
      सन् 1947 में श्री गौड़ीय मठ के आश्रित गृहस्थ भक्त श्रीराधामोहन दासाधिकारी जी के विशेष निमन्त्रण पर एक बार फिर श्रील गुरु महाराजजी आसाम प्रचार में गये प्रचार के दौरान श्रील गुरु महाराजजी अन्यान्य वैष्णवों के साथ श्रीराधामोहन दासाधिकारी प्रभु के घर में ठहरे और शहर के विभिन्न स्थानों में धर्म-सभाओं का आयोजन किया गया
      वहाँ के श्रीधीरेन्द्र कुमार गुहराय के पुत्र श्रीकामख्या चरण की श्रीगुरु महाराजजी से प्रथम मुलाकात श्री राधामोहन प्रभु के घर पर ही हुई थी श्रीकामाख्या चरण व उनके दोस्त श्री देवव्रत (रवि) तत्त्वजिज्ञासु होकर श्रील गुरु महाराजजी के पास श्रीराधामोहनजी के घर आये अपने बन्धु के साथ श्रीकामाख्या चरणजी भगवद्-प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ के निर्देशन की प्रार्थना से युक्त अन्तःकरण के साथ जब गुरु महाराजजी के पास आये, उस समय वे (श्रीगुरु महाराजजी) एकखाट पर बैठे थे दोनों ने महाराज जी को प्रणाम किया प्रणाम करते समय श्रीकामाख्या चरण जी को ऐसा अनुभव हुआ कि उन पर श्रील गुरु महाराज जी के शुभ-आशीर्वाद की वर्षा हो रही है ऐसा अनुभव करके वे पुलकित हो उठे इसी समय उन्होंने श्रील गुरुदेवजी से इस प्रकार का एक प्रश्न पूछा- “हरिनाम करते-करते मेरे मन में ऐसी भावना होती है कि जैसे थोड़ी देर के बाद मुझको भगवान के दर्शन होंगे और फिर संसार में जिन-जिन के प्रति प्रीति-सम्बन्ध है - उन्हें छोड़ कर चला जाना पड़ेगा – इसी आशंका से उस समय हरिनाम बंद हो जाता है, वह हरिनाम जैसे बंद न हो, उसके लिए मैं आपसे उपदेश देने की प्रार्थना करता हूँ
        यद्यपि यह कम दिमाग में उत्पन्न होने वाले विचारों वाला कोई खास महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं था, तथापि उत्साह करने के लिए श्रील गुरु महाराजजी ने प्रश्न की प्रशंसा की व उदहारण देकर समझाते हुए कहा- “कीचड़ व दुर्गन्ध से युक्त एक तालाब था जो कि बत्तखों की विहार स्थली था वे उस गंदगी में रहकर कीचड़ में रहने वाले शामूक, गुगली व केंचुवे आदि प्राणियों को खा कर अपना जीवन-निर्वाह करते थे एक दिन उन्होंने देखा कि आकाश में काफी ऊँचाई पर उनके जाति-भाई हंस उड़ कर जा रहे हैं वे हंस देखने में बहुत सुन्दर थे, आकार में बड़े थे व उनके पंख भी बड़े विचित्र व मनोहर थे बत्तखों ने इस प्रकार विचार किया कि उड़ने वाले ये हंस जहाँ रहते हैं, निश्चय ही वह स्थान अत्यंत रमणीक होगा यदि हमको भी उनके साथ रहना मिलता तो हमारा चेहरा भी सुंदर हो जाता एवं हम भी परम सुखी हो सकते थे
आकाश में उड़ने वाले हंस, जाति से राजहंस थे वे समुद्र में गये थे और अभी लौट कर मान सरोवर जा रहे थे जब बत्तख अत्यंत करुण भाव से देख रहे थे तो एक राजहंस को बत्तखों की दुरावस्था देख कर दया आ गयी वह आकाश में घूम-घूम कर ज़मीन पर उतरने लगा
         बत्तख राजहंस का अपूर्व प्रकाण्ड रमणीक चेहरा देख कर आश्चर्यान्वित हो गये वे हंस से, जहाँ वे रहते हैं, उन्हें भी वहाँ ले चलने के लिए प्रार्थना करने लगे राजहंस ने कहा- “आप सभी का इस दुर्गन्ध वाले स्थान से उद्धार करने के लिये ही मैं आया हूँ जब राजहंस ने उन बत्तखों को अपने साथ चलने के लिये कहा तो उन्होंने अपनी मज़बूरी बताते हुये कहा कि वे ज़्यादा ऊपर नहीं उड़ सकते बत्तखों की मज़बूरी समझ कर राजहंस को और भी दया आ गयी उसने अपने दयाद्रचित्त से कहा कि आप मेरी पीठ पर चढ़ जाइये, मैं आप सबको ले जाऊंगा राजहंस की बात सुनकर सारे बत्तख चिंतित हो उठे व आपस में काफी देर विचार-विमर्श करते रहे और राजहंस से पूछने लगे कि वे उन्हें जहाँ ले जा रहे हैं वहाँ खाने के लिए शामूक, गुगली व केंचुवे इत्यादि प्राणी मिलते हैं कि नहीं?
        उत्तर में राजहंस ने कहा कि वे हिमालय के मानसरोवर में रहते हैं वहाँ इस प्रकार की गन्दी चीज़ें नहीं होती। वहाँ पर तो वे कमल के मृणाल का भोजन करते हैं राजहंस की बात सुनकर बत्तखों के मुख से चीख निकल गयी वे घबराहट के साथ कहने लगे कि वे वहाँ क्या खाकर ज़िन्दा रहेंगे........ अंत में निर्णय हुआ कि वे राजहंस के साथ नहीं जाएंगे बत्तखों की इत्तर आसक्ति ही राजहंसों के रमणीक स्थान में जाने में बाधक बनी ठीक इसी प्रकार भगवान् की बहिरंगा माया द्वारा रचित नश्वर देह सम्बन्धी व्यक्तियों के प्रति आसक्ति ही हमारे लिए भगवान् के पास जाने के लिए बाधक स्वरूप होती है भगवान् निर्गुण मंगलमय व परमानन्द स्वरूप हैं उनका धाम भी उसी प्रकार का है वहाँ पर गन्दी, घृणित व नाशवान वस्तुओं का अधिष्ठान नहीं है जो भगवान् के लिए अन्य वस्तुओं को नहीं छोड़ सकते, भगवान् के अलावा अन्य-अन्य मायिक वस्तुओं को जो जकड़ कर रखना चाहते हैं, वे कभी भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते
       भगवान् और माया दो विपरीत वस्तुएं हैं साधु संग के द्वारा भगवान् व उनकी भक्ति को छोड़ अन्यान्य वस्तुओं की मांग से छुटकारा न मिलने तक जीवों का यथार्थ मंगल नहीं हो सकता
ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासंग मुक्तिभिः।।
(श्रीमद्भा. 11/26/26)
इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि दुःसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। सन्त पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे।
      अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति दुःसंग को परित्याग करके सत्संग करेंगे और साधु लोग अपने साधु-उपदेशों के द्वारा उनकी भक्ति की तमाम प्रतिकूल वासनाओं का छेदन करेंगे
{शुद्ध साधु के आनुगत्य व उनके संग को छोड़कर सिद्धान्त विषय में पारंगति नहीं हो सकती।}
                                          
      सन् 1947 में ही श्रील गुरुदेव कलकत्ता के कालीघाट, 8 नं. हाजरा रोड़ पर स्थित मठ में अवस्थान करते थे श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी का, संसार त्याग करने के संकल्प से पहले, इसी मठ में ही श्रील गुरुदेवजी के साथ दूसरा साक्षात्कार हुआ था श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी ने श्रील गुरुदेवजी की महापुरुषोचित्त दिव्य कांति दर्शन करके, अन्यान्य साधुओं से उनकी विलक्षणता का अनुभव किया उस समय शास्त्र युक्ति द्वारा, दो प्रश्नों के उत्तर श्रील गुरुदेवजी द्वारा, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी को समझाने पर उन्होंने (श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी ने) संसार त्याग करने का संकल्प लिया तथा संसार त्याग करके उसी मठ में श्रील गुरुदेवजी के पादपद्मों में उपस्थित हो गए
         वे दो प्रश्न ये हैं—‘नित्य व अनित्य विवेक की उठा-पटक बचपन से रहने पर भी भोग की प्रवृति भी उसके साथ है—ऐसी अवस्था में संसार त्याग करना उचित होगा के नहीं?”
        द्वितीय प्रश्न—“वह चतुर नहीं है, इसलिए उनके पिता जी ने बड़े स्नेह के साथ उनका लालन-पालन किया व उच्च शिक्षा प्रदान करवायी, ऐसी अवस्था में पिता का परित्याग करके आने से उन्हें पाप तो नहीं लगेगा?
श्रील गुरुदेव जी ने दोनों प्रश्नों के उत्तर में जो उपदेश दिया उसका सार मर्म ये है कि हमारे अन्दर अयोग्यता रह सकती है, किन्तु सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण में कोई भी अयोग्यता नहीं है वे अनन्त हैं उनकी कृपा भी अनन्त है हम कितने भी पतित क्यों न हों, हम पर उनकी कृपा अवश्य ही होगी, नहीं तो उनकी असीमता की हानि होती है कामादि शत्रुओं को हम अपनी शक्ति द्वारा परास्त नहीं कर सकते श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण करने से वे ही उन सभी शत्रुओं की ताड़ना से हमारी रक्षा करेंगे भगवान श्रीकृष्ण शरणागत के रक्षक व पालक हैं
‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
अहम् त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’ (श्रीगीता.18.66)
(श्रीकृष्ण अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश करते हैं -) हे अर्जुन! तुम लोकधर्म, वेदधर्म आदि समस्त नैमित्तिक धर्मों का परित्याग कर एकमात्र मेरी (भगवान् कृष्ण की) शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें धर्म-त्याग से उत्पन्न सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत करो।
          दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने गीता के अठारहवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करके समझाते हुए कहा कि समस्त धर्म, समस्त अपेक्षित कर्त्तव्य परित्याग करके श्रीकृष्ण में एकान्त भाव से शरणागत होने से श्रीकृष्ण अपेक्षिक कर्त्तव्यों को न करने या न कर पाने के कारण – इससे होने वाले दोषों से हमारी हरेक प्रकार से रक्षा करेंगे श्रीकृष्ण का नित्यदास है ये जीव और इसका स्वरूपगत धर्म एवं कर्त्तव्य है- श्रीकृष्ण की सेवा करना श्रीकृष्ण-सेवा द्वारा ही पितृ-मातृ-ऋण परिशोध होता है एवं सभी के प्रति, सभी प्रकार के कर्त्तव्य ठीक प्रकार से सम्पादित होते हैं

{लोहा जिस प्रकार चुम्बक द्वारा खिंचे जाने पर किसी बाधा की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जब आत्मा में भगवान् का तीव्र आकर्षण उपस्थित होता है तब जगत् का कोई भी बन्धन या बाधा उसको रोकने में समर्थ नहीं होती।}